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डिप्रेशन शुरू कैसे होता है, क्यों होता है। डिप्रेशन लक्षण, कारण और ईलाज। (अवसाद)

 डिप्रेशन शुरू कैसे होता है। डिप्रेशन शुरू क्यों होता है

  डिप्रेशन को सही मायने में देखा जाए तो यह सिर्फ एक सोचने समझने की प्रक्रिया है। इसमें इंसान के विचार सकारात्मकता से नकारात्मकता में बदलने शुरू हो जाते हैं जिसकी वजह से उनके जीवन में कई प्रकार की समस्याएं आना शुरू हो जाती है। जिसमे शारीरिक, मानसिक, व्यवहारिक और सामाजिक समस्याएं सम्मिलित है।

डिप्रेशन शुरू कैसे होता है, क्यों होता है। डिप्रेशन लक्षण, कारण और ईलाज (अवसाद)


डिप्रेशन शुरू कैसे होता है। डिप्रेशन शुरू क्यों होता है


शारीरिक समस्याओं में मुख्यतः हैडेक होना, सिर में दर्द होना, गैस की समस्या होना, एसिडिटी की समस्या होना, पेट में जलन होना, पेट फूला फूला सा रहना, उल्टी आना महसुस होना, बार बार गला सुखना, पूरे दिन शरीर थका थका सा रहना, पूरे शरीर में अलग अलग हिस्सों में दर्द होना, आंखों में दर्द महसूस होना, और भी कई प्रकार की समस्याएं देखने को मिलती है।

मानसिक समस्याओं में मुख्यतः किसी भी काम में मन न लगना, किसी से भी बात करने का मन न करना, छोटी छोटी बातों पर गुस्सा आना, बाहर घूमना फिरना अच्छा न लगना, नींद में गड़बड़ी होना, नींद जरूरत से ज्यादा आना या जरूरत से कम आना, खाने के प्रति समस्याएं होना, खाना जरूरत से ज्यादा खाना या जरूरत से कम खाना, याददस्त कमजोर होना, छोटी छोटी बातें, चीजें और काम भूल जाना। इसके अलावा भी कई प्रकार की समस्याएं देखने को मिलती है। 

आम तौर पर ये समस्याएं अपनेआप ठीक हो जाती है। फिर भी किसी को ये समस्या 2हफ्तों या उससे अधिक समय से है तो अपने किसी नजदीकी मनोचिकित्सक से परामर्श अवश्य करना चाहिए

अब हम बात करते हैं कि इस समस्या का ईलाज कैसे हों। इससे हम बाहर कैसे आए। अगर हमारी समस्या की वजह से हमारे रोजमर्रा के काम में बाधा उत्पन्न होती है तो हमें जरूरत पड़ती हैं एक हेल्पर की और वो हमारा हेल्पर होता है एक मनोचिकित्सक। 

अगर डिप्रेशन का लेवल ज्यादा है और डिप्रेशन की वजह से घबराहट की समस्या ज्यादा है तो चिकित्सक हमें एंटीडिप्रेस और एंटी एंजिटी की दवाई देते हैं। जिससे हम इससे बाहर आ सकते हैं। 

एक तो ये प्रक्रिया है जो दवाईयों के जरिए ईलाज होता है। और दुसरी प्रक्रिया है बिना दवाई के ईलाज किया जाए। 

बिना दवाई के ईलाज में वो सारी चीजे आती है जिसमें हम सेल्फ थैरेपिस्ट के तौर पर इससे बाहर आए। 

सेल्फ थैरेपिस्ट के तौर पर हम तभी बाहर आ सकते हैं जब हम इस प्रक्रिया को अच्छी तरह से समझ पायेंगे। डिप्रेशन या मानसिक समस्या जो विचार या चीज शुरू कर रहे है उस प्रक्रिया को हम अच्छी तरह से समझ ले तो हम अपनेआप में एक सेल्फ थैरेपिस्ट बन जाते हैं। और हम अपनेआप को इस समस्या से बाहर ला सकते हैं। 

अब हम तनाव को समझते हैं कि तनाव होता कब है

जब हमें ऐसा लगने लग जाए कि अब इस समस्या का कोई हल नहीं है, वास्तव में वो चीज वैसी हैं या नहीं यह हमें पता नहीं होता है फिर भी हमें ऐसा लगने लग जाता है। 

हमें जो चीजें जैसी लगती है वो हमारी मान्यता का हिस्सा होती है कि हम ऐसा मान रहे हैं। मगर हमारे मानने और वास्तविकता में बड़ा फर्क होता है। कोई चीज वैसी हैं या नहीं और हम क्या मान रहे हैं। इसमें बड़ा फर्क होता है। 

उदाहरण के तौर पर _

एक बार 4 अंधे लोग थे, उनको पूछा कि हाथी कैसा होता है। उन्होंने कहा कि हम तो अंधे हैं हमें नहीं पता हाथी कैसा होता है, तो उनको हाथी के बाड़े में ले जाया गया जहां हाथी थे। उनमें से एक ने हाथी का पांव पकड़ा, एक ने हाथी की सूंड पकड़ी, एक ने हाथी का कान पकड़ा और एक ने हाथी की पुंछ पकड़ी। फिर उनसे हाथी के बारे पूछा तो जिसने हाथी का पांव पकड़ा था वो बोला _हाथी पीलर (खंभा) जैसा होता है, जिसने सूंड पकड़ी थी वो बोला हाथी पाईप जैसा होता है, जिसने कान पकड़ा था वो बोला हाथी पंखे जैसा होता है और जिसने पुंछ पकड़ी थी वो बोला हाथी तो झाड़ू जैसा होता है। क्योंकि उनका ऐसा मानना था। 4अपनी जगह पर सही है क्योंकि 4ने अनुभव की गई बात ही बोली है। पर क्या 4 सही है??  4 पूरे सही नहीं है। मानी हुई चीज और वास्तविकता में बड़ा फर्क होता है। अब 4को बिठाया जाए और उनको हाथी के बारे में बात करने का बोला जाए तो सब आपस में लड़ने लग जायेंगे, क्योंकि हर कोई अपनी जगह पर सही है। तो हर कोई को लगेगा कि सामने वाला ही गलत है और मैं सही हु, जबकि कोई भी अपनेआप में पुरा सही कोई नहीं है। हम सब को सब कुछ नही पता। हम सब को पूरी वास्तविकता का थोड़ा थोड़ा हिस्सा सबको पता है जिसको हम मानते हैं। लेकिन हमारा माना हुआ पूरा वास्तविक नही होता। 

समस्या तब शुरू होती है जब हम हमारे माने हुए को ही पूरी वास्तविकता मान लेते हैं। तब हमें ऐसा लगता है कि हमारे पास सहारा और संसाधन कम है और समस्या बहुत बड़ी है। क्योंकि हम अभी भी उसके आधार पर चल रहे हैं जो हमारी मानी हुई है। जिसके कारण हमारे संस्थान हमे कम नजर आते हैं और समस्या बहुत बड़ी नजर आती है। ऐसी स्थिति में हमें तनाव होना शुरू हो जाता है और उसी तानव के कारण हम डिप्रेशन में चले जाते हैं।

हम जब भी किसी समस्या में फसते है तो उसमे दो प्रकार की चीज़े होती है। एक में तो वास्तविक समस्या होती है और दूसरे में काल्पनिक समस्या होती है। 

वास्तविक समस्या जैसे_ आप कोई काम कर रहे हैं और पास में कोई शोर शराबा या ज्यादा आवाज़ आ रही है तो वास्तव में आप काम पर ध्यान नहीं दे पाओगे। तो उस समस्या का समाधान है कि आप उस जगह पर जाएं जहां आवाज़ कम हो या बंद कमरे में आराम से बैठ कर काम कर पायेंगे। ये एक वास्तविक समस्या है।

आप काम कर रहे हैं और आपको बहुत ज्यादा गर्मी लग रही है। तब आप पंखे के नीचे, ए सी कमरे में या कूलर के सामने जाना पड़ेगा जिससे आप अच्छी तरह से काम कर सकें। ये एक वास्तविक समस्या है। 

कहीं पर आप को काम करना है और वहां पर रोशनी नहीं है तो वहा पर आप सही से काम नहीं कर पायेंगे। ये भी एक वास्तविक समस्या है।

काल्पनिक समस्या जैसे_ आप कहीं पर काम कर रहे हैं और आपके मन में यह ख्याल आना कि में यहां पर अच्छे से काम नहीं कर पा रहा हूं या में इस काम से खुश नहीं हु। मेरी योग्यता के हिसाब से काम नहीं मिल रहा है। जब ये चीजे दिमाग में आने लग जाए तो हम अपने काम में ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते हैं। ये जो आपका वास्तविक काम है उससे आपकी दूरी शुरू हो रही है वो किस वजह से हो रही है। आपके काल्पनिक विचारों की वजह से हो रही है। वो वास्तव में उस विचार का कोई अस्तित्व नहीं है पर हमारी कल्पना के अंदर है और हम उस काल्पनिक विचार को वास्तविक मान रहे हैं। 

हमारे सामने जितनी भी समस्या आती है उनमें से कुछ वास्त्विक समस्या है और कुछ काल्पनिक समस्या है। जब हम काल्पनिक समस्या को ही वास्त्विक समस्या मानने लग जाते हैं तब समस्याएं शुरू होती हैं।

उदाहरण के तौर पर _ 

एक छात्र है और वो अपनी परीक्षा की तैयारी कर रहा है। उसकी तैयारी के लिए बहुत ही सीधा सा कार्य हे कि अपने आप को अपनी परीक्षा में सफलता प्राप्त करना। तो उस परीक्षा का फॉर्म भर कर सबमिट करें। और साथ में उस परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्नों का विषय होना चाहिए। उस विषय को अच्छे से पढ़ कर प्रेक्टिस करनी चाहिए। बस यही इस समस्या का हल है लेकिन समस्या कैसे शुरू होती है। जैसे ही उसके दिमाग में ये विचार आता है कि में घर पर तैयारी कर रहा हूं पर दूसरे तो सब कोचिंग में तैयारी कर रहे हैं। जैसे ही उसके दिमाग में ये विचार आता है ये एक काल्पनिक विचार है पर वो उस विचार को वास्तविक समझ रहा है। उसको लगता है कि कोचिंग में पढ़ने वाले छात्र जो हे वो इससे ज्यादा पढ़ रहे हैं। कोचिंग में पढ़ने वाले छात्र ज्यादा योग्यता रख रहे हैं। वो अपने काल्पनिक विचारों को हल करने के लिए कोचिंग में पढ़ने जाता है। फिर वहां बैठे बैठे दिमाग में ख्याल आता है कि यहां जो अध्यापक पढ़ा रहे हैं उनके नोट्स अच्छे नहीं हैं। किसी दूसरे अध्यापक से नोट्स लेके आता हूं वो अपने काल्पनिक विचारों को पूरा करने के लिए वो दूसरे अध्यापकों के पास जाता है। वो इस काल्पनिक विचार को पूरा करते करते ही रहता है पर उसका हल नही निकलता है। इसके चक्कर में जो वास्त्विक कार्य था वो वास्त्विक कार्य पिछे रह जाता है। वास्तविक कार्य सीधा सा था कि जो विषय है उसको पढ़ना है, बहुत ही अच्छे से प्रेक्टिस करनी है और उसके बाद परीक्षा दे देनी है और उसका चयन हो जायेगा। वास्त्विक समस्या का यही सीधा सा हल होता है। पर हम उलझ जाते हैं उस काल्पनिक कार्य में उसको हम सही भी मानते रहते हैं। उसके कारण जो समस्या महसूस होती है फिर वही स्थिति उत्पन्न होती है जो शुरू में थी। कि हमारे संसाधन कम लगने लगते हैं और समस्या बहुत बड़ी लगने लगती है। पर वास्तव में समस्या थी ही नहीं बहुत छोटी सी समस्या थी। हमने उसको सोच सोच कर अपने काल्पनिक विचारों के पिछे उस समस्या को बहुत ही बड़ी कर देते हैं। 

बहुत बार तो हम क्या करते है समस्या होती भी नही है फिर भी हम उस चीज के ऊपर उलझ जाते हैं। और ज्यादातर मामलों में ऐसा ही होता है कि कोई भी समस्या नहीं होती और हम उसके ऊपर उलझ जाते हैं क्योंकि इंसान उलझता वहीं है जहां उसका हल नही निकलता। और समाधान तब नहीं निकलता जब कोई समस्या वास्तव में नही होती है। क्योंकि वास्तव में जो समस्या है उसका हल है पर जो काल्पनिक समस्या है उसका कोई हल नहीं है।


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